विवाह संस्कार भारतीय संस्कृति के मूलाधार हैं। गर्भाधान से लेकर अंत्येष्ठि तक सभी सोलह संस्कारों में विवाह संस्कार सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि उसी के बाद गृहस्थ धर्म ही सोलह संस्कारों को पूर्णता प्रदान करता है। शक्ति और शिव अर्थात स्त्री और पुरुष के अनन्य प्रेम से सृष्टि का यह क्रम जारी रहता है। यही वहज है प्रेम आज भी प्यार का सशक्त माध्यम है।
आज भी विवाह के अवसर पर दूल्हा और दुल्हन अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लेते हैं। प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है। भले ही माता-पिता कन्या दान कर दें। किंतु विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात् तभी मानी जाती है जब वर के साथ कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है। शास्त्रों ने अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वामा बनने से पूर्व कन्या वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन, भरण पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति खरीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन वर से भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती हैं।
सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम, तीसरा धन की प्रबंधन व्यवस्था, चैथा आत्मिक सुख, पांचवां पशुुधन संपदा, छठा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती हैं तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
इस सबका अहसास तत्काल तो नहीं होता पर व्यावहारिक जीवन में ये भी पहलू उभर कर सामने आतें हैं। उसी दौरान ये सब साबित होता है कि पति पत्नी एक दूसरे को दिए वचन का पालन करते हैं या नहीं। हालांकि इसमें उतार चढ़ाव होता रहा है, जो जीवन का अभिन्न पड़ाव माना जाता है। ऐसे ही पड़ाव आने पर दोनों से समझदारी की अपेक्षा की जाती है। इसी क्रम में हंसी से या फिर ताने मारने के बहाने ये सब बातें उभरकर सामने आती हैं।
आज भी विवाह के अवसर पर दूल्हा और दुल्हन अग्नि को अपना साक्षी मानते हुए सात फेरे लेते हैं। प्रारंभ में कन्या आगे और वर पीछे चलता है। भले ही माता-पिता कन्या दान कर दें। किंतु विवाह की पूर्णता सप्तपदी के पश्चात् तभी मानी जाती है जब वर के साथ कदम चलकर कन्या अपनी स्वीकृति दे देती है। शास्त्रों ने अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया है। वामा बनने से पूर्व कन्या वर से यज्ञ, दान में उसकी सहमति, आजीवन, भरण पोषण, धन की सुरक्षा, संपत्ति खरीदने में सम्मति, समयानुकूल व्यवस्था तथा सखी सहेलियों में अपमानित न करने के सात वचन वर से भराए जाते हैं। इसी प्रकार कन्या भी पत्नी के रूप में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए सात वचन भरती हैं।
सप्तपदी में पहला पग भोजन व्यवस्था, दूसरा शक्ति संचय, आहार तथा संयम, तीसरा धन की प्रबंधन व्यवस्था, चैथा आत्मिक सुख, पांचवां पशुुधन संपदा, छठा सभी ऋतुओं में उचित रहन-सहन के लिए तथा अंतिम सातवें पग में कन्या अपने पति का अनुगमन करते हुए सदैव साथ चलने का वचन लेती हैं तथा सहर्ष जीवन पर्यंत पति के प्रत्येक कार्य में सहयोग देने की प्रतिज्ञा करती है।
इस सबका अहसास तत्काल तो नहीं होता पर व्यावहारिक जीवन में ये भी पहलू उभर कर सामने आतें हैं। उसी दौरान ये सब साबित होता है कि पति पत्नी एक दूसरे को दिए वचन का पालन करते हैं या नहीं। हालांकि इसमें उतार चढ़ाव होता रहा है, जो जीवन का अभिन्न पड़ाव माना जाता है। ऐसे ही पड़ाव आने पर दोनों से समझदारी की अपेक्षा की जाती है। इसी क्रम में हंसी से या फिर ताने मारने के बहाने ये सब बातें उभरकर सामने आती हैं।
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