आज समाज की कुछ प्रतिशत महिलाओं के बारे में जरूर ये कहा जा सकता है कि वे वैचारिक तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ हैंए लेकिन आबादी का एक बड़ा प्रतिशत जो मध्यमवर्गीय है या उससे भी निचले स्तर पर जीता हैए वहाँ की स्त्रियाँ आज भी काठ की पुतलियाँ भर हैं। पुरुषों का दंभ स्त्री को वो सम्मान नहीं दे पाया है जिसकी वो हकदार हैं।
हमारे समाज में यह तो आम बात है कि यदि पत्नी पति से ज्यादा क्वालीफाइड है या दुनिया देखने का उसका नजरिया अधिक व्यापक हैए तो पति स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगता है। तब पत्नी के गुणों को बड़े दिल से स्वीकारने की बजाय वह उसे दबाकर रखने का हरसंभव प्रयास करता है। आखिर ऐसा क्योंघ् नारी को पृथ्वी की तरह सहनशक्ति वाली और क्षमाशील कहा गया हैए वो स्वयं बंधन में सुखी रहती है।
पिता का सुरक्षा देनाए पति का अधिकार जतानाए बच्चों का निश्चल स्नेहबंध उसे अच्छा लगता है। वह इतने सारे रिश्तों में घिरी निर्बल हो जाती है। पर हर रिश्ते को पूरी शिद्दत के साथ निभाती स्त्री कई बार कई स्थितियों में अपने आपको अकेला या असहाय ही महसूस करती है।
सिक्के का दूसरा पहलू सुकून देता है। जहाँ पुरुषों के एक छत्र साम्राज्य के बीच अपने वजूद को स्थापित करती नारी या इतिहास के पन्नों में अपनी जगह दर्ज करती जा रही नारियों की एक लंबी फेहरिस्त हैए जो निरंतर बढ़ रही है। अपने दायित्व एवं कर्तव्यों को निर्वाह करती स्त्री आत्मनिर्भर भी हो रही है। लेकिन आज भी उसे अपना श्स्पेसश् नहीं मिल पा रहा है।
आवश्यकता है कि हम स्त्री समाज के लिए सकारात्मकए सहयोगात्मक दृष्टिकोण रखते हुए नए सिरे से उनके लिए सोचें। स्त्री के रूप में हर रिश्ते को सम्मान दें क्योंकि वो उसका हक है।
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