जहां स्वच्छता, पति-पत्नी में प्रेम-भाव, बुजुर्र्गो के प्रति सम्मान और सौहार्द की भावना होती है, वहीं लक्ष्मी निवास करती हैं। अत: लक्ष्मीवान बनने के लिए जरूरी है कि सद्गुणों व संस्कारों को विकसित किया जाए। 3 नवंबर को दीपावली है, इस अवसर पर डॉ. अतुल टंडन का आलेख..
आजकल लोग भगवती लक्ष्मी को केवल धनागम के लिए पूज रहे हैं, जबकि धन-संपत्ति उनकी विभूति मात्र है। हम लक्ष्मी को धन का पर्याय समझने की भूल कर बैठे हैं। सच तो यह है कि धन केवल इन देवी की एक कला (अंश) मात्र है। इसलिए धनवान होना और लक्ष्मीवान होना, ये दो अलग-अलग बातें हैं। सही मायनों में लक्ष्मी का पर्यायवाची शब्द केवल श्री है। वेद में वर्णित श्रीसूक्त की ऋचाओं के द्वारा लक्ष्मीजी का आह्वान किया जाता है। भगवती की अनुकंपा से धन-संपत्ति के साथ-साथ प्रतिष्ठा, निरोगता, सद्बुद्धि, सुख, शांति और वैभव की प्राप्ति भी होती है। इसी कारण युगों से मानव श्रीमान बनने की कामना करता रहा है, किंतु सच्चा श्रीमान वही है, जो धन पाने के बाद धर्म के पथ से विमुख न हो। यानी अहंकार के वशीभूत होकर बुरे कर्म न करे। स्वार्थी होने के बजाय परमार्थी बने।
दीपावली की पूजा में हम प्रार्थना करते हैं कि भगवती लक्ष्मी हमारे घर पधारें, लेकिन यह जानना भी जरूरी है कि लक्ष्मीजी कहां निवास करना चाहती हैं? पुराणों में इस संदर्भ में एक आख्यान मिलता है। एक बार भगवान विष्णु ने लक्ष्मीजी से पूछा - दे देवि, क्या करने से तुम अचल होकर घर में रहती हो? इस पर विष्णुप्रिया लक्ष्मी बोलीं- जिस घर में कलह-क्लेश नहीं होता, वहां मैं विद्यमान रहती हूं। जिस घर में गृहस्थी का कुशल प्रबंध होता है और जहां सदा स्वच्छता रहती है, मैं उस घर में वास करती हूं। जिस घर में लोग मृदुभाषी और सौहार्द बनाए रखने वाले हैं, मैं वहां निवास करती हूं। जिस परिवार में बड़े-बूढ़ों की सेवा-सुश्रूषा होती है, मैं उस घर में निवास करती हूं। जिस घर के द्वार से कोई भूखा-असहाय खाली नहीं लौटता, मैं वहां वास करती हूं। जहां स्त्रियों का अनादर या शोषण नहीं होता, मैं वहां रहती हूं।
देवी ने श्रीहरि को यह भी बताया कि किस प्रकार के स्त्री-पुरुष उनके प्रिय पात्र होते हैं। जो स्त्री सुख-दुख हर स्थिति में पति का साथ देती है, वह लक्ष्मीजी को प्रिय है। जो पुरुष सदाचारी, कर्मठ, विनयशील, कर्तव्यनिष्ठ एवं पत्नी के प्रति ईमानदार है, वह लक्ष्मीजी की कृपा का पात्र है। कुल मिलाकर, यह निष्कर्ष निकलता है कि भगवती लक्ष्मी सद्गुणों और अच्छे संस्कारों को अपने निमित्त किए जा रहे पूजा-पाठ अर्थात कर्मकांड से अधिक महत्व देती हैं।
हालांकि शास्त्रों में लक्ष्मी-पूजा के लिए अमावस्या तिथि को निषिद्ध माना गया है, किंतु दीपावली में लक्ष्मी-
अर्चना कार्तिक मास की अमावस्या को ही होती है। क्योंकि मान्यता है कि दस महाविद्याओं में लक्ष्मी-स्वरूपा कमला का आविर्भाव इसी तिथि में हुआ। कार्तिक अमावस्या वस्तुत: कमला जयंती है। इसलिए इस दिन कमला (लक्ष्मी) का पूजन शास्त्रोचित है। अमावस की अंधेरी रात में दीपमालिका जलाकर पूजा करने का तात्पर्य है कि ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान का अंधकार समाप्त हो। इसके अतिरिक्त दीपदान के माध्यम से चातुर्मास में सो रहीं लक्ष्मी (भगवान विष्णु की आह्लादिनी शक्ति) को कार्तिक शुक्ल (देवोत्थान) एकादशी से पूर्व लोकहितार्थ जगाया जाता है। जिस प्रकार एक गृहिणी गृहस्वामी से पहले जागकर अपने कार्य में तत्पर हो जाती है, उसी तरह कार्तिकी अमावस्या के दिन श्रीहरि की अद्र्र्धागिनी उनसे ग्यारह दिन पूर्व जाग जाती हैं।
लक्ष्मीजी का जागरण दीपमालिका को प्र”वलित करने से होता है, अत: कमला जयंती दीपावली के रूप में लोक-विख्यात हो गई। कमल के आसन पर विराजमान, हाथ में कमल पुष्प लिए हुए कमल द्वारा पूजित भगवती कमला साक्षात लक्ष्मी ही हैं। जिस प्रकार कमल कीचड़ में खिलता है, उसी प्रकार कर्मयोगी विपरीत परिस्थितियों से निपटकर लक्ष्य को हासिल कर लेता है।
अत: दीपावली की पूजा का मूल उद्देश्य श्रीमान या लक्ष्मीवान बनना है, न कि केवल धनवान। ज्ञान के आलोक में अंतस का अंधकार (अज्ञान) नष्ट हो जाने पर सद्गुणों का तेज ही मनुष्य को लक्ष्मीवान या श्रीमान बना सकता है। श्री अर्थात लक्ष्मी सिर्फ सदाचारी का ही वरण करती हैं। दुराचारी धनवान भले बन जाए, पर वे श्रीमान (लक्ष्मीवान) कहलाने के अधिकारी नहीं बन सकते। श्रीदेव्यथर्वशीर्ष में महालक्ष्मी गायत्री का उल्लेख है- महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि तन्नो देवी प्रचोदयात। जिसका भावार्थ यह है - हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते हैं। वह देवी हमें सत्प्रेरणा देकर सत्कर्र्मो में प्रवृत्त करें। दीपावली-पूजा में ही हमारा यही संकल्प होना चाहिए।
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