महेश शर्मा
वो जमाना गया जब हिंदू धर्म में पत्नी अपने पति को परमेश्वर मानकर जिंदगी भर का साथ निभाती थी। हिंदू विवाह कानून लागू होने के बाद से इस रिश्ते को निभाने के मामले में दोनों के समान अधिकार हैं। यानी पति और पत्नी दोनों को समान करार दिया गया है।
सामान्य भारतीय नागरिकों के लिए पहले किसी समान नागरिक नियमावली के न होने से भारत के दो प्रमुख समुदाय हिंदू और मुसलमान अपने-अपने पारंपरिक कानूनों से अनुशासित होते रहे हैं। अर्थात हिंदू कानून और मुसलमान मुस्लिम कानून से। अदालतें संवैधानिक अधिनियमों के अनुसार या निष्पक्षता, न्याय और विवेक के आधार पर हिंदू कानून लागू करती है।
विवाह का पारंपरिक दृष्टिकोण इस विचारधारा पर आधारित था कि लोग आध्यात्मिक लाभ के लिए शादी करते हैं। मनु, नारद, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ तथा कौटिल्य के समय से अब तक विचारधारा में बहुत परिवर्तन आया है। नये कानूनी नियमों के अंतर्गत परंपरागत हिंदू विचारधारा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। अब विवाह पति पत्नी के लिए जन्म जन्मांतर बंधन नहीं
भारतीय समाज के बहुत बड़े भाग में यद्यपि शादी को आध्यात्मिक पवित्रता पर आधारित मानने का अभी भी रिवाज है, लेकिन यह अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस विचारधारा में हिंदू स्त्रियों को पुरूष के बराबर का स्थान बिल्कुल भी प्राप्त नहीं है।
वैदिक नियमों के अनुसार एक पुरूष की कई पत्नियां हो सकती हैं, लेकिन एक औरत के अनेक पति कदापि नहीं हो सकते। विवाह के बाद यद्यपि पति और पत्नी एक हो जाते हैं, लेकिन शादी निष्पन्न होने पर अर्थात सप्तपदी की समाप्ति गोत्र स्वीकार करना होता है। इस प्रकार औरत का गोत्र भी बदल जाता है और उसे अपनी व्यक्तिगत पहचान से पूर्णतः हाथ धोना पड़ता है। पुरूष के साथ ऐसा कुछ नहीं होता।
एक हिंदू के लिए विवाह आमोद-प्रमोद का विषय नहीं, बल्कि एक कर्तव्य है। इसका उद्देश्य वंश वृद्धि और धार्मिक व आध्यात्मिक कर्तव्यों की पूर्ति करना है। तय है कि पहले स्त्रियां सामजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित होती थीं। पत्नी के लिए पति उसका स्वामी, भगवान, पति परमेश्वर होता था। पत्नी के बिना कोई धार्मिक संस्कार पूर्ण नहीं हो सकता था।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विवाह कानून संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा हिंदू विवाह की अवधारणा में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया है। अब विवाह और तलाक के संबंध में स्त्री और पुरूष दोनों ही कानून की दृष्टि में बराबर है। इस अधिनियम द्वारा विवाह की प्राचीन अवधारणा को समाप्त कर दिया गया है।
अब विवाह के समय लड़का लड़की के जीवित पत्नी या पति नहीं होना चाहिए। विवाह के समय दोनों में से कोई मानसिक असंतुलन का शिकार न हो। संतानोत्पत्ति के अनुपयुक्त न हों। उसे पागलपन अथवा मिर्गी के बार बार नहीं दौरे पड़ते हों। विवाह के समय दूल्हे ने 21 वर्ष और दुल्हन ने 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली हो।
दोनों पक्षों में से कोई निर्विद्ध रिश्ते की सीमा में न आते हों। दोनों पक्ष एक दूसरे के सपिंड नहीं हों, क्योंकि कई क्षेत्रों में रिवाज और प्रथाएं इसकी अनुमति नहीं देते हैं। जहां सप्तपदी का अनुष्ठान विवाह के समय होता है वहां सातवां फेरे लेते ही विवाह को परिपूर्ण हो जाता है और दोनों पक्षों के लिए कानून प्रभावी हो जाता है।
नये अधिनियमों के अनुसार दोनों पक्षों को एक ही जाति का होना अनिवार्य नहीं है। अब जाति भेद तथा जाति के आधार पर पक्षपात समाप्त हो गया है। इसके साथ ही ऐसा पुनर्विवाह, जहां एक पुरूष की पहली पत्नी जीवित है, रद्द कर दिया गया है। कोई भी हिंदू पुरूष एक पत्नी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकता है।
वो जमाना गया जब हिंदू धर्म में पत्नी अपने पति को परमेश्वर मानकर जिंदगी भर का साथ निभाती थी। हिंदू विवाह कानून लागू होने के बाद से इस रिश्ते को निभाने के मामले में दोनों के समान अधिकार हैं। यानी पति और पत्नी दोनों को समान करार दिया गया है।
सामान्य भारतीय नागरिकों के लिए पहले किसी समान नागरिक नियमावली के न होने से भारत के दो प्रमुख समुदाय हिंदू और मुसलमान अपने-अपने पारंपरिक कानूनों से अनुशासित होते रहे हैं। अर्थात हिंदू कानून और मुसलमान मुस्लिम कानून से। अदालतें संवैधानिक अधिनियमों के अनुसार या निष्पक्षता, न्याय और विवेक के आधार पर हिंदू कानून लागू करती है।
विवाह का पारंपरिक दृष्टिकोण इस विचारधारा पर आधारित था कि लोग आध्यात्मिक लाभ के लिए शादी करते हैं। मनु, नारद, याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ तथा कौटिल्य के समय से अब तक विचारधारा में बहुत परिवर्तन आया है। नये कानूनी नियमों के अंतर्गत परंपरागत हिंदू विचारधारा में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। अब विवाह पति पत्नी के लिए जन्म जन्मांतर बंधन नहीं
भारतीय समाज के बहुत बड़े भाग में यद्यपि शादी को आध्यात्मिक पवित्रता पर आधारित मानने का अभी भी रिवाज है, लेकिन यह अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस विचारधारा में हिंदू स्त्रियों को पुरूष के बराबर का स्थान बिल्कुल भी प्राप्त नहीं है।
वैदिक नियमों के अनुसार एक पुरूष की कई पत्नियां हो सकती हैं, लेकिन एक औरत के अनेक पति कदापि नहीं हो सकते। विवाह के बाद यद्यपि पति और पत्नी एक हो जाते हैं, लेकिन शादी निष्पन्न होने पर अर्थात सप्तपदी की समाप्ति गोत्र स्वीकार करना होता है। इस प्रकार औरत का गोत्र भी बदल जाता है और उसे अपनी व्यक्तिगत पहचान से पूर्णतः हाथ धोना पड़ता है। पुरूष के साथ ऐसा कुछ नहीं होता।
एक हिंदू के लिए विवाह आमोद-प्रमोद का विषय नहीं, बल्कि एक कर्तव्य है। इसका उद्देश्य वंश वृद्धि और धार्मिक व आध्यात्मिक कर्तव्यों की पूर्ति करना है। तय है कि पहले स्त्रियां सामजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित होती थीं। पत्नी के लिए पति उसका स्वामी, भगवान, पति परमेश्वर होता था। पत्नी के बिना कोई धार्मिक संस्कार पूर्ण नहीं हो सकता था।
लेकिन अब ऐसा नहीं है। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 और विवाह कानून संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा हिंदू विवाह की अवधारणा में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया है। अब विवाह और तलाक के संबंध में स्त्री और पुरूष दोनों ही कानून की दृष्टि में बराबर है। इस अधिनियम द्वारा विवाह की प्राचीन अवधारणा को समाप्त कर दिया गया है।
अब विवाह के समय लड़का लड़की के जीवित पत्नी या पति नहीं होना चाहिए। विवाह के समय दोनों में से कोई मानसिक असंतुलन का शिकार न हो। संतानोत्पत्ति के अनुपयुक्त न हों। उसे पागलपन अथवा मिर्गी के बार बार नहीं दौरे पड़ते हों। विवाह के समय दूल्हे ने 21 वर्ष और दुल्हन ने 18 वर्ष की आयु पूर्ण कर ली हो।
दोनों पक्षों में से कोई निर्विद्ध रिश्ते की सीमा में न आते हों। दोनों पक्ष एक दूसरे के सपिंड नहीं हों, क्योंकि कई क्षेत्रों में रिवाज और प्रथाएं इसकी अनुमति नहीं देते हैं। जहां सप्तपदी का अनुष्ठान विवाह के समय होता है वहां सातवां फेरे लेते ही विवाह को परिपूर्ण हो जाता है और दोनों पक्षों के लिए कानून प्रभावी हो जाता है।
नये अधिनियमों के अनुसार दोनों पक्षों को एक ही जाति का होना अनिवार्य नहीं है। अब जाति भेद तथा जाति के आधार पर पक्षपात समाप्त हो गया है। इसके साथ ही ऐसा पुनर्विवाह, जहां एक पुरूष की पहली पत्नी जीवित है, रद्द कर दिया गया है। कोई भी हिंदू पुरूष एक पत्नी के रहते दूसरी शादी नहीं कर सकता है।